तुम और मैं

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मैं बंदूक थामे सरहद पर खड़ा हूँ

और तुम वहाँ दरवाजे की चौखट पर

अनन्त को घूँघट से झाँकती ।

वर्जित है उस कुएँ के पार तुम्हारा जाना

और मेरा सरहद के पार

उस चबूतरे के नीचे तुम नहीं उतर सकतीं

तुम्हें परंपराऐं रोके हुये है

और मुझे देशभक्ति का ज़ज़्बा

जो सरहद पार करते ही खतम हो जाता है

मैं देशद्रोही बन जाता हूँ

और तुम मर्यादा हीन

बाबू जी कहते हैं.. मर्यादा में रहो,  अपनी हद में रहो

शायद ये घूँघट तुम्हारी मर्यादा है

और मेरी देशभक्ति की हद बस इस सरहद तक.. ।


कवियत्री- दीप्ति शर्मा 
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