जब सब कुछ निश्चित तो कैसा पाप कैसा पुण्य

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बचपन से ही हमे अच्छे-बुरे और पाप पुण्य का पाठ घर की पाठशाला से मिलने लगता है और हम जान जाते हैं कि किन कामों को करने पर हम उस रेखा को लांघ जायेंगे जो सज्जनता को परिभाषित करती है, मगर मेरा मन उस वक़्त विचलित हो जाता है जब खुद को ज्ञानी समझने वाला हर इंसान एक तरफ तो इस बात कि वकालत करता है कि सब कुछ परमात्मा के द्वारा पहले से तय है और दूसरी तरफ पाप और पापी को घृणा कि नज़र से देख कर उस व्यक्ति को परमात्मा कि एक घ्रणित रचना बता कर धुत्कार देता है  |
                 एक तरफ तो हर बुद्धिमान यह कहता है कि सब कुछ पहले से निश्चित है और दूसरी तरफ ये कहता है कि पाप तो किसी पापी कि विचारधारा कि उपज होती है, तो क्या एक तुछ इंसान पर परमात्मा का नियंत्रण नहीं है, अगर है तो यह बात पुर्णतः सिद्ध होती है कि उस पाप में उस परमात्मा कि भी बराबर कि भागीदारी है, और अगर नियंत्रण नहीं तो यह बात सिद्ध होती है कि भगवान् का अस्तित्व नहीं है |
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