ज्यादातर लोगों को शायद ही यह पता है कि मिर्ज़ा हादी रुसवा के 1899 में लिखे चर्चित उपन्यास 'उमराव जान अदा' और आठवें दशक की मुज़फ्फर अली की कालजयी फिल्म 'उमराव जान ' की नायिका कोई काल्पनिक पात्र नहीं, बल्कि 1857 के ग़दर के आसपास के काल में लखनऊ की एक बेहद विख्यात नर्तकी और शायरा थी। वे कोठे पर अपने रक़्स के लिए ही नहीं, मुशायरों में अपनी बेहतरीन ग़ज़लों के लिए भी जानी जाती थी। उनका जन्म तत्कालीन अवध रियासत के फैजाबाद जिले में हुआ था और जिन्दगी के आखरी दिन उनके बनारस में कटे जहां उनकी क़ब्र आज भी मौज़ूद है। उनका लिखा ज्यादा कुछ तो अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनके कुछ अशआर बचे रह गए हैं जिनमें से कुछ मित्रों के लिए प्रस्तुत हैं !
1. बुतपरस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
कांपता हूं जो कहीं ज़िक्रे खुदा होता है
हाले-दिल उनसे न कहना था बड़ी चूक हुई
अब कोई बात बनाएं भी तो क्या होता है
2. काबे में आ के भूल गया राह दैर की
ईमान बच गया मेरे मौला ने ख़ैर की
किसको सुनाएं हाले-दिले-ज़ार ऐ 'अदा '
आवारगी में हमने ज़माने की सैर की
3. जान देना किसी पे लाज़िम था
ज़िदगी यूं बसर नहीं होती
ऐ 'अदा ' हम कभी न मानेंगे
दिल को दिल की ख़बर नहीं होती |
लेखक- ध्रुव गुप्ता
Umrao jan ki shyari
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