कमल हसन की फिल्म विश्वरूपं को लेकर आज जिस तरह का विवाद छिड़ा हुआ है उसको देखकर एक बात तो साफ़ है की कलाकार की कला आज भी कुछ समुदायों और ऐसे इंसानों की मोहताज़ है जो शायद ही कलाकार की कला को समझने की सूझ-बुझ रखते हों, सेंसर बोर्ड जो की बनाया ही इस वजह से गया कि फिल्मों का बारीकी से अध्यन करने के बाद ही समाज के समक्ष लाए, पर इस तरह के विरोध सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर भी सवाल्या निशान लगाते हैं कि क्या हमारा सेंसर इतना सक्षम नहीं की एक बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण और धर्मनिरपेक्ष फैसला ले सके |
दूसरी तरफ ये कहाँ तक सही है कि किसी फिल्म को रिलीज से पहले ही विरोध करके रोक दिया जाये, क्या ये सही न होता कि फिल्म को समाज के सामने आने के बाद ये फैसला खुद देश कि जनता करती कि फिल्म में क्या आपत्तिजनक सीन हैं जिन्हें देखकर सर्वसम्मति से हमेशा के लिये एक गाइडलाइन तैयार कि जाती कि सिनेमा के माध्यम से किन चीजों को दिखाना चाहिये और किन्हें नहीं दिखाना चाहिये |
अगर बात कि जाए समुदायों और राज्नीताओ के विरोध कि तो कई फिल्मे जिन पर विरोध कि मांग कि गयी वो आज नेशनल टीवी पर आम रूप से चलती नज़र आ जाती है मगर उन पर तो कोई विरोध नहीं करता, उदाहरण के तौर पर जब प्रकाश झा कि फिल्म आरक्षण रिलीज होनी थी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने इस पर रोक लगायी थी पर आज ये फिल्म आम तौर पर टीवी पर देखने को मिल जाती है पर कोई भी इसका विरोध नहीं करता है | इन सब बातो से ये साफ़ हो जाता है कि आम जनता को तो इन सब चीजों से तो कोई मतलब ही नहीं होता है वो तो सिर्फ मनोरंजन के लिये सिनेमा को चुनते है पर हमारे राज्नेते और समाज के कई ठेकेदार जनता को गुमराह कर उनकी दिशा नकारात्मक बना देते हैं | उन्हें करना ये चाहिये कि देश में कई समस्याए हैं पहले उनका निवारण करे बाद में किसी और के बारे में सोचें |