पुलिस सुधार के साथ स्वयं की मानसिकता बदलना जरूरी !

RAFTAAR LIVE
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आप क्या सोचते है आप जाने लेकिन मैंने पिछली दफ़ा कई बार दिल्ली पुलिस से लाठियां खाते,आँसू गेस के गोले खाते युवाओं की आँखो में आँसू देखें या नारे लगाने वक़्त ज़रूरत कम होने पर उनको एक कोने पर पैंट या कमीज़ उपर कर चोंट पर फूंक मारते देखा हैं|इसी दौरान पुलिस भी कई दफ़ा अजीब किस्म की मानसिक प्रताड़ना से गुज़रती है जब आते-जाते बच्चे उन्हें गालियां दे कर गुज़रते या उन्हीं के नाम से हाय-हाय के नारे लगाते|कई पुलिस अफसर तो अनेक मौकों पर कहते कि "बेटा हम तुम्हारे साथ हैं बस ड्यूटी की मजबूरी समझो,कई बताते कि आंदोलन में मेरी भी बच्ची या बच्चा शिरकत करने आए हैं हमें खुशी है कि आप युवा देश के लिए अपने स्वयं के लिए इतना सोचने लगे हो"|हालांकि उस दौरान भी पुलिस पर जमकर आक्रोश निकाला था मैंने भी कुछ चीज़ो को देख मसलन लड़कियो को ही पीटना लाठियों से या धोखे में रखकर आंदोलन कुचलने का प्रयास करना|फिर भी भीतर ही भीतर जानता था कि 1861 के पुलिस अधिनियम पर आधारित ये पुलिस दरअसल आज के भारत के अनुरूप कार्य करे भी तो कैसे जब औपनिवेश्क काल के शासकों के बाद सत्ता के शीर्ष पर विराजमान ताक़ते इन्हें जनता नहीं खुद का सेवक समझती और बनाए रखना चाहती हो|पुलिस सुधार को लेकर सर्वोच्च न्यायलय से लेकर न जाने कहां-कहा़ं और कितनी दफ़ा सरकारों को फटकार नहीं लगी फिर भी कोई ऐसे बदलाव को स्वीकार करे भी तो कैसे जिससे उनके खुद के आने वाले कल की राते कहां गुज़रेगी जैसे प्रश्न मुंह बाहें खड़े हो जाएं ?पुलिस की आलोचना उसके उन सभी निंदनीय क्रियाकलापों को लेकर अवश्य होनी चाहिए जिसकी वह हक़दार हैं|उदाहरणार्थ गांधीनगर में पांच वर्षिय बच्ची के साथ हुई दरिंदगी में भी उसके परिवारजनों की माने तो वक़्त रहते कारवाई होती तो काफी कुछ होने से बचा जा सकता था,वो नहीं तो न सहीं चोरी पर सीनाजोरी अलग कि मामला रफादफा कीजिए क्योंकि आप गरीब हैं,कहां इन सब चक्करों में पड़ रहे हैं चलिए दो हज़ार रूपय काफी होंगे!ज्यादा नारे लगाती हो लो थप्पड़!लानत है ऐसी मानसिकता,ऐसी इंसानियत पर|

यूं ही सोलह दिसंबर को दामिनी रेप कांड के संदर्भ में भी कई सवाल है जिनमें से मामूली सवाल ये कि पुलिस आखिर कर क्या रहीं थी जब एक बस सरेआम युवती और युवक के चंद पाशविकों से घिरे होने पर उनकी मौत का काल बनने को आमादा थी ? स्कूल के दौरान जब छोटा था ऐसा खिड़की से बहुत बार देखा कैसे ड्राईवर नीचे जाकर कुछ देरी में पर्याप्त कागज़ात न होने पर भी हंसी खुशी मामला सुलझा आता था|पुलिसिया स्टाफ में बहुतेरे आसामाजिक तत्वों की तूती बोलती है यह बात किसी के लिए कोई रहस्य नहीं हैं|फिर भी इन बातों से इतर यदि बलात्कार जैसे अपराध के विषय में इमानदारी से सोचा जाए तो बताइएगा जिस अपराध को नब्बे फीसद परिवार,रिश्तेदारों,पड़ोसियों द्वारा अंजाम दिया जाता हो उसमें पुलिस का कितना हस्तक्षेप अपराध घटित होने से पहले हो पाना संभव होगा ?क्या पुलिस हाय-हाय के बीच हम अपने समाज की दीवारों पर आई सड़न को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं?निश्चित तौर पर पुरूष प्रधान समाज उपर से पुलिस को ख़ाकी का गुरूर उन्हें मौजूदा कार्यप्राणली में अधिक खतरनाक बना देता है पर अंतत: वह भी समाज का ही अंग तो हैं|फिर,इनके राजनीतिक आंकाओं पर किसी की नज़र नहीं जाती जो इन्हें सुधारने के बीच सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए हैं|हमे शुरूआत तो अपनी स्वयं की मानसिकता बदल कर ही करनी होगी|ये सब बाते मैं आंदोलन,पुलिस की आलोचना,सबसे इतर कर रहा हूं चूंकि लोकतंत्र को अधिक मजबूत बनाने में आंदोलनों एवं किसी संवेदनशील मुद्दे पर जनता जनार्दन का स्वत: स्फूर्त होता हस्तक्षेप मुल्क के भविष्य के लिए मुफीद साबित होगा बस किसी ग़लत ताक़त के हाथों इस्तेमाल होने से बचना चाहिए|और खामियां जिसकी जहां हो उसकी आलोचना होनी चाहिए चाहे वे जो हो|आलोचना ही आपको-हमको बेहतरी की ओर ले जाती हैं फिर हमारी पुलिस तो जितनी भर्त्सना झेले वो कम !लेकिन शर्त ये रहे कि पुलिस हाय-हाय के बीच अहम लक्ष्य यानी 'पुलिस सुधार' को हाशिाए पर न धकेला जाय जिस पर बात न होना पुलिस की बीमार गुलाम मानसिकता से अधिक ख़तरनाक और आने वाले भविष्य के साथ अन्याय होगा !



लेखक- अंकित मुटरेजा
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