धर्म और जाति का भँवर जाल

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आज मानव अपने ही बनाए उन चार धर्मों में इस कदर उलझ कर रह गया है कि वह भगवान का बनाया वह सर्वोपरी धर्म भूल गया जो है मानवता का धर्म। आश्चर्य है आज कोई इंसान यह नहीं कहता कि मैं श्रेष्ठ हूँ क्योंकि मैं मानव हूँ। कोई मानवता के धर्मो का पालन करके एक दूसरे पर दया भाव नहीं दिखाता, बल्कि सब हिन्दू, मुस्लिम, सिख्ख, ईसाई के दायरे में सिमट कर रोज लड़ा करते हैं और एक दूसरे पर छींटाकशी किया करते हैं। इन धर्मों में सबसे पुराना धर्म कहे जाने वाले हिन्दू धर्म में पवित्र माने जाने वाले वेद और भगवतगीता तक में हिन्दू या इससे सम्बंधित किसी भी शब्द की व्याख्या नहीं दिखी। इनमे केवल मानव के विषय में चर्चा की गई और उसे उनके कर्मों के आधार पर चार वर्णों में विभाजित कर दिया गया। भगवतगीता में वर्णित है कि ब्रम्हज्ञान, विद्याएं सीखने को इच्छुक, ज्ञान का प्रसार करने वाले -ब्राम्हण। वीर एवं योद्धा, युद्ध में कभी पीछे न हटने वाला - क्षत्रिय। व्यवसाय में निपुण, धन अर्जित करने वाले - बनिया या वैश्य। बेपरवाह, मस्तमौला जीव- कल की फिक्र नहीं,मेहनत करो और खाओपियो मौजकरो-शूद्र। जो जैसा कर्म करता था उसे वैसी ही संज्ञा दी जाती थी।
मानव अपने लिए दुःख का कारण तब बना जब यही विभाजन वंश और कुल पर आधारित हो गया। अब सब उलट विद्या है। कहा भी गया है कि कलयुग में उल्टी गंगा ही बहेगी। अब ब्राह्मण- ही केवल धर्म कर्म का कार्य करे। वैश्य- व्यापार करे। क्षत्रिय- सुरक्षा और शुद्र- साफ़ सफाई। 
न जाने मानव कब अपने बनाए इस भंवर जाल से बहार निकलेगा और कब मानवता के धर्म का पालन करेगा। जब बन्दे की आत्मा उस अनंत दुनिया में पहुंचेगी तो उसे अलग-अलग अल्लाह, राम, इशु या गोविन्द नहीं मिलेगा। तब क्या ये धर्म का रक्षक नजरें मिला पायेगा उस अनत अविनाशी से?

By - Swati Gupta
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