प्राकर्तिक आपदा या मानवीय हस्तक्षेप

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उत्तर भारत में मची तबाही ने पुरे देश को झकझोर के रख दिया है लेकिन यह मात्र एक प्राकर्तिक आपदा है या अंधे विकास के नाम पर प्रकृति के साथ किये गए खिलवाड़ का भयावह परिणाम है उत्तर भारत में जबरन किये गए मानवीय हस्तक्षेप का नतीजा बादलो के फटने के रूप में हमारे सामने एक भयावह तस्वीर की तरह आया है आज के समय में हिमालय में जलविधुत परियोजनाओं के साथ अंधे विकास के कई नमूने मौजूद हैं, अगर सिर्फ उत्तराखंड की बात करें तो यहाँ 70 परियोजनाओं पर काम चल रहा है |
किसी समय में हिमालय का उत्तरी भाग सघन वन क्षेत्र था जो अब नष्ट हो चूका है, साथ ही गढ़वाल और कुमायु ही नहीं समूचे हिमालय से बाँझ ( ओक की हिमालयी प्रजाति ) को नष्ट कर चीड़ ( पाइन ) के जंगलो में तब्दील कर दिया गया जिसके फलस्वरूप मिट्टी की गुणवत्ता नष्ट हो गयी | 
शासन व्यवस्था ने प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन का मापदंड ही बदल दिया, हिमालय के सुदूर क्षेत्रों में तीर्थाटन के स्थान पर पर्यटन और इको-टूरिज्म विकसित हुआ है, तपस्या और मौज-मस्ती के बीच जमीन-आसमान का फर्क होता है क्या ऐसी स्तिथियों में उत्तर भारत में हुई त्रासदी को सिर्फ एक प्राकर्तिक आपदा कहा जा सकता है |
पर्वत राज हिमालय का सौन्दर्य और ऐश्वर्य ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन कर सामने आया, विकास नाम्रुपी चिड़िया के नाम पर जंगलो को बड़े पैमाने पर साफ़ कर दिया गया, वही पहाड़ो को काटने में विस्फोटकों के इस्तेमाल में भी कोई कमी नहीं की गयी |

इन सब बातो से ये स्पष्ट होता है की विकास के नाम पर अगर मानवजाती बढ़-चढ़ कर प्रकृति का विनाश करेगी तो प्रकृति भी अपनी विनाश लीला से बार-बार उसे सबक देती रहेगी, सरकार और समाज के लिए यह समय चेतने और जागने का है कि वो प्रकृति की धाराओं को छेड़ने का प्रयास न करे वरना परिणाम अतिघातक हो सकते हैं |
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