पैसे कमाने की होड़
में यथार्थ और सामाजिक के कई परिपेक्षों को दिखाने का काम करने वाला सिनेमा आज एक
व्यवसाय की तरह हमसे रूबरू हो रहा है जिसका पहला मकसद आज कि तारीख में सौ करोड़ का
आकड़ा पार करना हो गया है, जिसके लिये वो किसी भी तरह का बेहूदा मसाला परोसने से भी
नहीं कतरा रहा है |
फ़िल्में हमेशा से ही
समाज का आईना या प्रेरक श्रोत रही हैं पर बीते कुछ समय से कुछ कलाकार अपने नाम और
छवि का सहारा लेकर समाज के समक्ष मनोरंजन के नाम पर केवल बेहूदा सिनेमा परोस रहे
हैं | हालिया दिनों में कुछ फिल्मे आयीं जिन्होंने दर्शकों कि जेबें तो खूब खाली
करायीं पर क्रिटिक्स ने उनके खिलाफ खूब ज़हर भी उगला और बताया की किस तरह ऐसी
फिल्मे भारतीय सिनेमा का स्तर गिराने में लगी हुई हैं |
भारतीय सिनेमा के निर्माताओं
और ऐसे कलाकारों जो कि बिना यथार्थ की फिल्मों से जुड़ते हैं उन्हें सोचना होगा की
हम सिनेमा को किस रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं वरना आने वाले
समय में एक ऐसा दौर आएगा कि लोग पैसे को प्राथमिकता देने की होड़ में यथार्थपरक
सिनेमा से जुडना ही छोड़ देंगे |