प्रिये !जिसे अपनी जान से ज्यादा चाहता था,
उसकी हर बात पर केवल हाँ ही कहना.
इनकार से कोसों दूर ,
जिसे अपना हमसफ़र बनाना ,
और उसी के साथ जीवन बिताना .
घंटों तक बैठ, उससे बातें करना ,
गोद में लेटे उसकी काली घटा सी ,
जुल्फों से खेलना .
राह चलते किसी भी, आवारा ,मव्वाली
लड़कों का उसे छेड़ना ,बर्दाश से बहार ,
उनसे लड़ बेठना .
उसकी आँखों में केवल ,
अपनी ही तश्वीर बसाय रखना ,
पसंद था मुझे .
किन्तु !आज कहाँ हे?
वह प्यार का समुन्द्र ,
जो बहता- रहता था दिल में मेरे ,
क्या वह सब एक नाटक था ?
जिससे करता था मनोरंजन ,
वह मेरी हर तकलीफ में
साथ देती थी मेरा ,
और नाराज मेरे होने पर ,
मानती थी मुझे ,
अथवा ,छोड़ देती थी अन्न- जल.
आज कहाँ गया ,
वह प्यार का समुन्द्र ?
जो बहा करता था अंत:हृदये में मेरे ,
रह गया एक तडफता दिल ,
जो धीरे से धडक उठता हे ,
जब याद आती हे उसकी .
कवी - संजय कुमार गिरि