"मुक्ति" अर्थात "स्वतंत्रता", न जाने कितने ही मायनों में हम सदैव मुक्ति को देखते व समझते हैं किन्तु क्या कभी हम समाज कि विकलांगता के प्रति एक संकुचित मानसिकता से मुक्ति के लिए सोंच पाते हैं, क्या मात्र स्वयं को परतंत्रता कि बेड़ियों से आज़ाद रखना ही मुक्ति है, क्या विकलांगता व विकलांगता के अंतर्गत नेत्रहीनों को "सूरदास", "नयनसुख" जैसे शब्दों के साथ उनका संबोधन एक संकुचित मानसिकता को नहीं दर्शाता |
हम "मुक्ति- एक नयी सोंच" के माध्यम से समाज को संकुचित मानसिकता से मुक्त कराने का प्रयास करेंगे, ताकि ये समाज अपने ही इन नेत्रहीन भाई-बहनों के प्रति अपनी मानसिकता बदले और इन्हें अपने समानाधिकार दे |
विकलांगता (दृष्टिहीनता ) भारतीय समाज का शायद सबसे बड़ा अभिशाप समझा जाता है विकलांग व्यक्ति पर ईश्वर का रोष, प्रकोप, ग्रहों की दशा खराब होने जैसे न जाने कितने ही आरोप लगाकर कितने ही अंधविश्वासों से जोड़ कर देखा जाता है, विकलांगता को ऐसा अभिशाप माना जाता है जो किसी व्यक्ति के पूर्वजन्म में किये गये दुष्कर्मों के परिणामस्वरूप उसे इस जन्म में मिला है ।
भारतीय समाज में विकलांग, वृद्ध व बीमार व्यक्ति की सेवा को सबसे बड़ा पुण्य मन जाता है, परन्तु मात्र पुण्य अर्जित करने के लिए, उन्हें ख़ास मानकर या दयापात्र मानकर उनकी सेवा करना अवश्य ही हमारे समाज की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है । उन्हें विकलांग( दृष्टिहीन) क्यों और किन मायनों में कहा जाता है, क्या वे वास्तव में विकलांग हैं, मात्र देखकर ही नहीं स्पर्श से भी तो दुनिया देखी जा सकती है ।
भारतीय समाज में विकलांग, वृद्ध व बीमार व्यक्ति की सेवा को सबसे बड़ा पुण्य मन जाता है, परन्तु मात्र पुण्य अर्जित करने के लिए, उन्हें ख़ास मानकर या दयापात्र मानकर उनकी सेवा करना अवश्य ही हमारे समाज की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है । उन्हें विकलांग( दृष्टिहीन) क्यों और किन मायनों में कहा जाता है, क्या वे वास्तव में विकलांग हैं, मात्र देखकर ही नहीं स्पर्श से भी तो दुनिया देखी जा सकती है ।