एसिड अटैक

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"बात 24 जनवरी की दोपहर की है. मैं ट्यूशन से अपने घर लौट रही थी. हालाकि दूरी कम थी और मैं अधिकतर पैदल आती थी मगर उस दिन पापा मुझे स्कूटर से वापस ला रहे थे. पापा परेशान थे क्यूकि मेरे ही कालेज का एक लड़का रोज मुझे धमकियां देता था. मैं उसे कई बार समझा चुकी थी. वह रास्ते चलते मुझे रोकता और छेड़छाड़ करता था. उस दिन भी वह हमारा पीछा कर रहा था. वह मारूती वैन में बैठा था और उसके साथ उसके दो और साथी भी थे. कार स्कूटर के साथ सटकर चल रही थी. बस इसके बाद जो कुछ हुआ वह मेरी जिन्दगी का सबसे कड़वा सच था. उसने मुझ पर तेजाब फेंक दिया था," 11 साल पहले हुई इस धटना को बताते हुए आज भी उसके आंसू छलक आते हैं. यह कहानी है आरती श्रीवास्तव की जिसपर सन् 2000 मे एक इनकम टैक्स आफीसर के बेटे ने तेजाब डाल दिया था.

"कुछ ही सेकेंडों मे वहां चारो ओर सफेद धुआं था. दिलजले आशिक ने आरती पर जानलेवा तेजाब फेंक दिया था. तेजाब सीधा उसके चेहरे पर फेंका गया था. उसका कुछ हिस्सा मेरी पीठ पर भी पड़ा. जब तक मुझे कुछ समझ आता आरती का चेहरा 80% जल चुका था. उसकी एक आईब्रोआंख की पुतली और नाक का बाया हिस्सा पूरी तरह से गल कर गायब हो गया था. डाक्टरों ने रिपोर्ट देखने के बाद जो पहली बात कही वह यह थी कि अगर कुछ और देर हो जाती तो ऐसिड आरती के सिर के अन्दर चला जाता",  आरती के पिता प्रताप कहानी को पूरा करते हैं. प्रताप यह बताते बताते अपनी शर्ट उतार कर यह भी दिखाते है कि 11 साल बाद भी तेजाब के वे जख्म कितने ज्याद गहरे हैं.

आरती की कहानी उस फिल्म की कहानी है जिसका न कोई क्लाइमेक्स है और न कोई एंडिंग. अगर कुछ है तो यह कि 11 सालों की लम्बी कानूनी लड़ाई और सिस्टम से धोखा खाकर परिवार अपनी बुरी यादों को भुलाने के लिये कानपुर हमेशा हमेशा के लिये छोड़कर ग्वालियर चला गया. अब तो आरती केस बस एक एक्जाम्पल भर है. एक्जाम्पल इस बात का कि कैसे ढेर सारा हो हल्ला मचने के बाद भी विक्टिम को न्याय नही मिल पाता है.

बताते चलें कि आरती केस कानपुर का सबसे ज्यादा चर्चित केसेस में से एक है. यह कानपुर मे एसिट अटैक का पहला रिपोर्टेड केस था. इससे पहले इंडिया में कुछ गिनी चुनी बार ही एसिड अटैक्स के केसेस सुने गये थे. जब आरती पर तेजाब फेंका गया तो किसी को भी इसकी इंटैन्सिटी का कोई अन्दाजा नही था. आरती का फर्स्ट एड करने वाले डाक्टरों को बिल्कुल भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर किया क्या जाये. लोगों को भी यह भरोसा नहीं हो रहा था कि किसी मासूम लड़की पर कोई तेजाब फेंक सकता है. सभी के मन मे भयंकर गुस्सा भरा था. हमला करने वाले को पुलिस ने रात में ही उसके मामा के घर से गिरफ्तार कर लिया था. उसके बाकी बचे दो साथियों की तलाश भी जारी थी. जगह जगह पुलिस के छापे पड़ रहे थे. आलम यह था कि जैसे ही अगले दिन लोगों को इसके बारे में पता चला एक बड़ी भीड़ अस्पताल के सामने जुट गई. सभी की मांग थी कि साजिस करने वालों को तुरन्त पकड़ा जाये. वीमेन आर्गनाइजेसन्स से लेकर पालिटिकल और कल्चरल आर्गनाइजेसन्स सभी ने इसे क्रिटिसाइज किया. लगभग सभी न्यूजपेपर्स ने इस केस को फ्रन्ट पेज पर जगह दी. मामले की गम्भीरता का अन्दाजा तो बस इसी बात से लगाया जा सकता है कि आरती जिस अस्पताल में भर्ती थी वहां बाहर दस हजार की भींड़ इकठा थी और डाक्टरों ने इसके चलते इलाज करने से मना कर दिया था.

मीडिया के हवाले से अभिनव के जो बयान आये उनमे उसने कहा कि वह आरती का चेहरा खराब कर देना चाहता था और उसे लगता था कि इससे आरती उससे शादी कर लेती. एक हफ्ते बाद आरती ने दैनिक जागरण के साथ एक इंटरव्यू मे कहा, 'अगर प्रेम किया था तो तेजाब क्यूं फेंका'. मामला राजनैतिक मोड़ ले चुका था. कड़ी पुलिसिया कार्यवाही के बाद अभिनव का दूसरा साथी भी अगले ही दिन पकड़ लिया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता ने 50,000 रूपये की चेक आरती के परिवार को दी. हमले में शामिल तीसरा अभियुक्त अभी तक पकड़ा नही गया था. चारों ओर धरनों और प्रदर्शनों से पुलिस पर दबाव लगातार बढ़ रहा था. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने फिल्मों और सिनेमा और इनसे जरिये बढ़ रहे वेस्टर्न इफेक्ट को इस तरह के हमलों का जिम्मेदार बताया. 2 फरवरी को लिटिल सेफ में एफ-टेक नाम की एक कोचिंग की पार्टी चल रही थी. एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने वहां डांस कर रही लड़कियों से मारपीट की और प्रोग्राम बंद करा दिया. उसी दिन वारदात का तीसरा मास्टरमाइंड राकेश मल्लाह पुलिस को चकमा देकर अदालत में पेश हो गया और उसे जेल भेज दिया गया. संयोग से उस दिन कचहरी मे बम भी चले थे. उन्ही दिनों दीपा मेहता की फिल्म वाटर की शूटिंग पर भी बवाल मचा हुआ था. लव फेस्टिवल वेलेंनटाइन डे भी पास ही था. घटनाएं घटती गईं और मामला पुराना होता गया. फिर लोग सब कुछ भूल गये. आरती भीबम भी और वाटर भी.

इस घटना के नौ साल बाद काफी मशक्कत के बाद 2009 मे आरती केस पर सुनवाई शुरू हुई. फास्ट ट्रैक कोर्ट ने अभिनव को 10 साल की रिग्रेस पनिसमेंट और 5 लाख का जुर्माना और उसके साथियों को 8-8 साल की सजा और ढाई ढाई लाख का जुर्माना की सजा सुनाई. सभी को लगा कि आखिर देर से ही सही पर आरती को न्याय तो मिला. आरती के परिवार ने भी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और जीत ली थी. दिसंबर2010 मे झूंठे डाक्यूमेंट्स कोर्ट के सामने रख कर अभिनव हाईकोर्ट से जमानत मंजूर करा ली और वह पिछले 5 महीने से जमानत पर बाहर है. आरती के इस बीच चार मेजर आपरेन्स हुए जिनमे फैमिली के लगभग 16 लाख रूपये खर्च हुए मगर आरती के चेहरे में कोई खास सुधार नही हुआ. अभिनव को एक साल के भीतर ही बेल मिल जाने पर आरती और उसकी फैमिली के हौसले पस्त हो गये. आरती अब डिप्रेशन मे जिन्दगी गुजार रही है.

परिवार की मानें तो पिछले नौ सालों मे विमेन आर्गनाइजेसन्स और पालीटिकल लीडर्स ने अपने किये हुए वादों से जमकर वादाखिलाफी की. नौकरी से रिटायर हो चुके पिता प्रताप कहते हैं, "घटना के वक्त तो हमे सैकड़ो आश्वासन मिले. जिसने भी इस केस पर हाथ रखा उसे भरपूर पब्लिसिटी मिली मगर बदले मे हमे सिर्फ आशवासनों से ही काम चलाना पड़ा. सनातन धर्म सभा ने एक लाख रूपये देने का आश्वासन दिया मगर बाद में वे वादाखिलाफी कर गये." अपनी उम्र और सेहत से लाचार प्रताप यह बताते हुए बीच मे कई बार खासते है. प्रताप कहते हैं, "पहले कुछ दिन तो वादे याद रहे अब तो दिमाग से वो भी मिट गये हैं". नाराजगी जताते हुए वह यहां तक कह देते हैं कि उनका वकील भी उनका अपना नही रह गया. अगर ऐसा नही होता तो क्या केस नौ साल खिंचता. हालाकि फैक्ट्स भी इसी ओर इशारा करते है कि केस को ठीक ढंग से पर्स्यू नही किया गया.

आरती का केस कानपुर के फेमस एडवोकेट नन्द लाल जायसवाल ने लड़ा. प्रताप कहते हैं "जायसवाल साहब ने यह केस फ्री में लड़ने का वादा किया था और उन्होने शुरूआत में काफी तेजी भी दिखाई मगर बाद में उनका रोल संदिग्ध हो गया. उन्होने 9 साल तक हमें यह कहकर टाला कि हाईकोर्ट ने स्टे लगा रखा है और वह कुछ नहीं कर सकते. हाईकोर्ट में भी हमने उनपर भरोसा जताया मगर उन्होने आसानी से अभिनव की बेल हो जाने दी."  हाईकोर्ट में अभिनल ने गलत दस्तावेजों का सहारा लेकर बेल ले ली. कोर्ट में पेश किये गये हलफनामें में अभिनव के वकील ने दिखाया कि वह जेल में साढ़े पांच साल से ज्यादा का समय गुजार चुका है और और इसी बेसिस पर उसे बेल मिल गई. बाद में इस गलफनामें में साढ़े 5 साल वाली बात को क्लरिकल मिस्टेक बता कर डेढ़ साल करवा लिया और इस तरह बेल भी कैन्सल नही हुई. प्रताप के बार बार पूंछने पर भी जब वकील ने कोई रिस्पान्स नहीं दिया तो प्रताप नें केस आली आर्गनाइजेशन को दे दिया.

आरती के केस को सुपरवाइज कर रही रेनू इस मामले पर कहती हैं, "इस केस में तो बेल मिल ही नहीं सकती. जब किसी को 10 साल की रिग्रेस पनिशमेंट मिली हो तो वह किसी भी ग्राउन्ड पर 1 या 2 साल के अन्दर बेल पर रिहा नही हो सकता. मेरा मानना है कि आरती के वकील की मिलीभगत के बिना बेल ग्रान्ट होना पासिबल ही नहीं था."

ला के मुताबिक अगर किसी की बेल एप्लीकेशन एक बार रिजेक्ट हो जाती है तो उसे अगली बेल एप्लीकेशन लगाते वक्त कोई नया ग्राउन्ड बताना होता है. आरती के केस में पहले दो बार बेल रिजेक्ट हुई है और फिर तीसरी बार यह बेल ग्रान्ट हो गई जबकि इसमें कोई भी नया ग्राउन्ड नहीं बताया गया . सबसे ज्यादा डिसअप्वाइंटिंग यह भी है कि सब कुछ एक फ्राड’ के तहत हुआ. मेरा मानना है कि इस केस में कंटेम्ट आफ कोर्ट की कार्यवाही होनी चाहिये. -रजतएडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

प्रताप इसके लिये उनके ग्वालियर मे होने को भी दोषी मानते हैं. "कानपुर मे रहना हम लोगों के लिये नामुमकिन हो गया था. आये दिन हमे केस वापस लेने की धमकियां मिलती रहती थीं. लोगों मे आरती को लेकर इतनी क्यूरिआसिटी थी कि उसका वहां एक नार्मल लाइफ जीना इम्पासिबल सा लगने लगा था. कानपुर हमारे लिये अब बुरी यादों वाला एक शहर भर था और आखिरकार हमें कानपुर छोड़ना पड़ा." प्रताप यह भी मानते हैं कि उनकी आर्थिक स्थिति भी उनके कानपुर छोड़ने का सबसा बड़ा रीजन था. "हमने आरती के चार मेजर आपरेशन्स कराये. कम से कम 16 से 18 लाख रूपयों का खर्च आ चुका था. ऐसे मे बेहतर विकल्प ग्वालियर जाकर बस जाना ही बचता था. कम से कम यहां मेरा अपना एक मकान तो है."

गजब का है उसका कान्फीडेन्स

घटना को घटे अब लगभग 11 साल हो चुके हैं. आरती की मां मीना कहती हैं कि इस दौरान कई बार आशा की लौ डगमाईकइयों ने हाथ भी थामा. हम सब अन्दर तक हिल गये थे. ऐसे में तो किसी भी आम इंसान का कान्फीडेंस चकनाचूर ही हो जाता.

प्रताप बताते हैं कि आरती ने कभी भी अपने मनोबल को गिरने नही दिया. उसने आखिर तक हार नही मानी. प्रताप उस समय को याद करते है जब आरती और वो अस्पताल मे थे और आरती की ड्रेसिंग हो रही थी. "तेजाब की जलन इतनी दर्दनाक होती है कि मेरी पीठ पर पड़े तेजाब से मैं तो कराह ही उठा था. मैंने तो हिम्मत ही छोड़ दी थी मगर आरती ने हिम्मत कभी नही छोड़ी. डाक्टरों ने खुद इस बात पर आश्चर्य जताया कि आखिर इतनी आत्मशक्ति वह लाई कहां से." इस बात का जवाब आरती खुद देती है. आरती का परिवार राधास्वामी समुदाय का फालोअर है. योगा और ध्यान लगाने की ट्रेनिंग उसने बचपन से ही ली थी. "मैंने ड्रेसिंग के समय अपना ध्यान ईश्वर में लगा लिया था. इससे मेरा मन दर्द से अलग हटकर परमात्मा की ओर चला जाता था. धीरे घीरे यह आर्ट मेरे दर्द को बाटने में कारगर होने लगी. सच कहूं तो आज भी किसी डिप्रेशन की स्थिति में मैं यही प्रासेस दोहराती हूं. यह तरीका वाकई मेरे जिन्दगी मे बड़ा कारगर रहा है."

यह तो बस एक ट्रेलर है 

एसिड अटैक से जिन्दा बच गई आरती की यह कहानी उसकी अकेले की कहानी नही है. एवन ग्लोबल सेंटर फार वीमेन एंड जस्टिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2002 से 2010 के बीच इंडिया में कुल 153 केसेस मीडिया मे आये. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि एक्चुवल डेटा इससे कहीं ज्यादा है. कई वीमेन आर्गनाइजेसन्स के मुताबिक इंडिया मे इन अटैक्स की संख्या कम से कम 1500 के आसपास है. एसिड अटैक्स की आईपीसी मे कोई अलग धारा न होने की वजह से नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के पास इसका कोई स्पेसिफिक डाटा अब तक अवेलबल नही है. सेंटर फार ग्लोबल इनीसिएटिव की रिसर्च के मुताबिक एसिड अटैक्स के सबसे ज्यादा मामलों के लिहाज से इंडिया तीसरे नंबर पर आता है. बांग्लादेश और कम्बोडिया ही इंडिया से आगे हैं. आश्चर्य की बात है कि दोनों ही देशों मे एसिड अटैक्स को लेकर सेप्रेट ला बनाए जा चुके है. बांग्लादेश में जहां यह ला 2002 मे ही बनाया जा चुका है वही कम्बोडिया मे भी इसका ड्राफ्ट लगभग तैयार है. पाकिस्तान मे भी एसिड अटैक्स पर एक सेप्रेट एक्ट लाने की तैयारी है. इंडिया में न तो इस तरह के अटैक्स को रोकने के लिये कोई ला है और न ऐसे सर्वाइवर्स को मदद करने के लिये कोई संस्था. लोकतंत्र की मजबूती और विशालता को देखते हुए इंडिया के लिये एक शर्मनाक बात है.

क्या है ऐसिड अटैक्स का इतिहास

एसिड अटैक्स के रिटेन केसेज पहली दूसरी शताब्दी से शुरू होकर लेट मेडीवियल पीरियड्स तक मिलते है. उस समय एसिड का यूज गोल्ड और दूसरे कई प्रीसियस मेटल्स को प्यूरीफाई करने मे होता था. 16वी शताब्दी मे यूरोप, 17 वीं शताब्दी मे फ्रांस और 19 वी शताब्दी मे ब्रिटेन में ऐसिड अटैक्स का जिक्र मिलता है. उस दौरान ये अटैक्स बेबस ओरतों द्वारा अपनी रक्षा करने या बेवफाई का बदला लेने के लिये किये जाते थे. 1985 में मैरी काफिन ने अपने पति और उसकी प्रेमिका पर पब्लिक प्लेस में ऐसिड फेक कर उनसे बदला लिया था. एसिड अटैक का यह सबसे पहला नोन केस था जिसे इतनी पापुलैरिटी मिली थी. बाद मे इस तरीके को तालिबान ने महिलाओं के खिलाफ ही इस्तेमाल किया था. आज के समय मे एसिड अटैक महिलाओं की आजादी छीनने का सबसे कारगर तरीका साबित हुआ है. पूरी दुनिया मे अब तक ऐसिड अटैक्स के10,000 से भी ज्यादा मामले सामने आये हैं.

क्या है ऐसिड अटैक्स के लिये सजा

दुनिया के सारे देशों मे ऐसिड अटैक्स के लिये अधिकतम सजा का ही प्राविधान है. बांग्लादेश मे तो ऐसिड अटैक्स के एक सेप्रेट ला है जिसमे इसके लिये मौत की सजा तय की गई है. कम्बोडियापाकिस्तान और ईरान में भी इस तरह के अटैक्स के लिये मौत की सजा या आई फार ऐन आई का सिस्टम है जिसमे महिला चाहे तो वह भी अटैकर पर तेजाब फेंक सकती है. यूरोप और अमेरिका मे भी इस तरह के अटैक्स के लिये अगल धाराएं है और स्पीडी ट्रायल का सिस्टम है. इंडिया मे ऐसिड अटैक्स के लिये कोई सेप्रेट ला नही है. यहां इस तरह के मामलों को हत्या के प्रयास जैसे सामान्य मामलों की करह ट्रीट किया जाता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट में सेंट्रल गवर्नमेंट के स्टैंडिंग काउन्सिल और सीनियर एडवोकेट महमूद आलम कहते हैं - इस तरह के मामलों में स्पीडी ट्रायल की जरूरत है जबकि अब तो फास्ट ट्रैक कोर्ट का सिस्टम भी बन्द हो चुका है. एसिड अटैक्स पर सेप्रेट ला लाने की जरूरत है मगर उसके लिये संविधान मे संशोधन करना होगाजो कि आज की परिस्थिति में सम्भव नही दिखता.


कानपुर मे हैं 5 एसिड सर्वाइवर्स

आरती के अलावा कानपुर मे पूजालक्ष्मीसाधना और शबनम भी उन लड़कियों मे से हैं जो आज भी तेजाब के दर्द को झेल रही हैं. इन सभी केसेस मे कामन बात यह है कि तेजाब फेंकने वाले आज भी आजाद घूम रहे हैं.

यूपी मे ही है लगभग 50 से ज्यादा केसेस

अकेले यूपी मे ही 50 से ज्यादा मामले है मगर अधिकर मे हमलावर खुले आम घूम रहे हैं. नंबर्स के मामले मे कर्नाटक सबसे आगे है जहां ऐसिड अटैक्स के 80 से भी ज्यादा रिपोर्टेड केसेस हैं.

साभार –आलोक दीक्षित

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