अंग्रेज इतिहासकारों के विभाजनकारी नज़रिए ने मुग़ल बादशाह औरंगजेब को आम तौर पर एक कट्टर, धर्मांध, शुष्क और हृदयहीन शासक के रूप में ही चित्रित किया और हिन्दुवादी इतिहासकारों ने उनका अनुगमन किया है। सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है। बहुत कम लोगों को पता है कि औरंगजेब कठोर शासक के अलावा एक विलक्षण संगीतप्रेमी और एक भावुक कवि भी थे। औरंगजेब ने राजनीतिक और आर्थिक कारणों से दरबार में संगीत पर प्रतिबंध लगाया था, लेकिन उनके अन्तःपुर में नौरोज़ के मौके पर संगीत की महफ़िलें खूब जमती थीं। उन्हें ध्रुपद संगीत प्रिय था और उनके दरबार में खुशहाल खां, बिसराम खां, सुखीसेन, किशन खां, हयात रंग खां, मृदंग राय जैसे ध्रुपद गायक मौजूद थे। लेखक निकोलो मनुक्की ने अपनी किताब ' स्टोरिया डि मोगोर ' में औरंगजेब की संगीत सभाओं का वर्णन किया है। इस किताब के अनुसार बादशाह खुद एक कुशल वीणावादक थे। वे संगीतज्ञ शेख मुहीउद्दीन याहिया मदनी चिश्ती के भक्त थे जिन्हें वे प्रति माह एक हजार रुपए भेजते थे। संगीतज्ञ खुशहाल खां ने अपनी एक रचना में संगीतप्रेमी औरंगजेब को ' औलिया ' और ' जिन्दापीर ' तक कहकर संबोधित किया है - ' आयौ आयौ रे महाबली आलमगीर, जाकी धाक देखे कोउ धरे न धीर / चकतावंस सुलितान औरंगजेब, साहिन में साहि औलिया जिन्दपीर' ! औरंगजेब के काल में उनकी सहायता से संगीत के कई बहुमूल्य ग्रंथ लिखे गए, जिनमें प्रमुख थे - मिर्ज़ा रोशन मीर का ' संगीत पारिजात ' ( 1666 ) तथा इबाद मुहम्मद कामीलखानी के ' असामीसुर ' और ' रिसाला अमलेबीओ ठाठ रागिनी ' ( 1669 )। कवि के रूप में बादशाह औरंगजेब की एक ध्रुपद रचना देखिए !
अब घरी आवत है री माई री अवध को दिन आज
वेग प्रफुल्लित भयो सुगंध मंजन कर कर
आभूषण वसन बनाय पहरे प्यारी
जब ही अरगजा भेटत लगाय
तब होवै मन भावतो काज।
यह देखो वह गए मनमोहन बलमा
अंतरयामी स्वामी कवन वरण कारण
विरहन तेरे आगमन मानो पतितन को दीनो सुख समाज।
शाह औरंगजेब लीनी गले ही लगाय
कीनी निहाल तोहे बाल
दीनों ढिग बिब सुहाग भाग आनंदराज !
इतना संवेदनशील व्यक्ति धार्मिक हो सकता है, धर्मांध नहीं।क्या इतिहास को फिर से लिखने का वक़्त नहीं आ गया है ?
लेखक- ध्रुव गुप्ता