छत्तीसगढ़ के सुकमा में एक और नक्सली हमले के में सी.आर.पी.एफ के लगभग दो दर्जन जवानों के मारे जाने की दुखद खबर आ रही है। पहले भी ऐसी ख़बरें आती रही हैं। हमारी सरकारों को इनसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। शहीदों के परिवारों को मुआवज़े की रक़म की घोषणा होगी, दो-चार दिन जंगलों के ऊपर हेलीकाप्टर उड़ेंगे, कॉम्बिंग ऑपरेशन का नाटक खेला जाएगा और फिर शांति से अगले हमले का इंतज़ार शुरू हो जाएगा। हत्यारे नक्सलियों के आगे ऐसी लाचार क्यों हैं सरकार और पुलिस ? त्रासदी यह है कि नक्सल समस्या के चार-पांच दशक और हज़ारों हत्याओं के बाद भी हमारी सरकारें यह तय नहीं कर पाईं हैं कि यह सामाजिक गैरबराबरी से उपजी राजनीतिक समस्या है या खालिस आपराधिक गिरोहों का आतंक। इसी अनिर्णय के कारण देश के इस सबसे बड़े आतंकी संगठन को न तो आतंकवादी माना गया और न उसके ख़िलाफ़ खुले मन से कोई निर्णायक लड़ाई लड़ी गई। सरकार के अनिर्णय के पीछे हमारे कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी मित्रों की बड़ी भूमिका है। नक्सलवाद को गौरवान्वित करने वाले इन मित्रों का ज्ञान ज़मीनी नहीं, किताबों पर ज्यादा आधारित है। बिहार के कई नक्सल प्रभावित जिलों में हासिल अपने व्यक्तिगत अनुभवों और कई नक्सली नेताओं से पूछताछ के आधार पर मैं आप मित्रों के लिए नक्सलियों के बारे में कुछ बहुप्रचलित भ्रमों का निवारण करना चाहूंगा। मुझे पता है कि कुछ लोगों को यह नागवार गुज़रेगा, लेकिन सच तो सच ही होता है !
1. यह आम धारणा है कि नक्सलवादी शोषक सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध युद्धरत हैं। नक्सली आंदोलन के आरंभिक दिनों में शायद ऐसा रहा हो, आज की हकीकत यह है कि वर्गसंघर्ष की आड़ में यहां अपराधियों और लूटेरों के बड़े-बड़े समूह कार्यरत है। ये समूह स्थानीय आदिवासियों की मदद से जंगलों, पहाड़ों और खेती के लिए उर्वर जमीनों पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उसके बाद आरंभ होता है वन पदाधिकारियों, कीमती लकड़ी और बीड़ी पत्ते के ठेकेदारों, खनन कार्य में लगे पूंजीपतियों, सड़क या भवन निर्माण में लगी कंपनियों, बालू तथा पत्थर के ठेकेदारों और इलाके के बड़े किसानों से रंगदारी उगाहने का अंतहीन सिलसिला। लूटपाट की सुविधा के लिए उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र को एरिया और जोन में बांट रखा है। एक-एक नक्सली जोन की कमाई करोड़ों में है। यह मत सोचिए कि यह कमाई क्षेत्र के आदिवासियों की शिक्षा, रोजगार और कल्याण पर खर्च होता है । इसका आधा हिस्सा आंध्र प्रदेश और बंगाल में बैठे नक्सलवाद के आकाओं को भेजा जाता है और आधा स्थानीय नक्सलियों के हिस्से आता है।
2. यह आम धारणा है कि नक्सलवाद के बैनर तले आदिवासी अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे है। शायद लोगों को पता नहीं कि उगाही और हमले की रणनीति स्थानीय लोग नहीं, महानगरों में बैठे उनके आक़ा तय करते हैं। किसी जोन में नेता और हमलावर दस्ते के लोग आमतौर पर स्थानीय नहीं होते, बाहर से भेजे जाते हैं। हर जोन में ऐसे 10 से 20 लोग बाहर से पोस्ट किये जाते हैं जिनपर निर्णय और कार्रवाई की ज़िम्मेदारी होती है। स्थानीय लोगों की भूमिका महज़ हमलों के वक़्त दस्ते की संख्या बढ़ाने, नक्सलियों के हथियार ढोने और छुपाने, दस्तों के लिए आसपास के गावों से भोजन जुटाने और उनकी हवस के लिए अपने गांव-टोलों से लडकियां भेजने तक सीमित है। इतनी सेवा के बदले उन्हें सौ-पचास रूपये और कभी-कभी किसी किसान की जमीन पर कब्ज़ा कर खेतीबारी का आदेश मिलता है। किसी ऑपरेशन के बाद नक्सली नेता तो कुछ समय के लिए बड़े शहरों में छुपकर एय्याशी करते हैं, पुलिस के दमन का शिकार स्थानीय आदिवासियों और दलितों को होना पड़ता है। यह सही है कि सरकारों ने अपने विकास कार्यक्रमों में कुछ हद तक आदिवासियों की उपेक्षा की है, लेकिन उनकी दुर्दशा में सबसे बड़ा योगदान नक्सलियों का है। उन्होंने अरसे से जंगलों में प्रशासन और विकास एजेंसियों का प्रवेश बंद कर रखा है। इतना ही नहीं, सरकार द्वारा बनाए गए अधिकांश सड़कों, पुल-पुलिया, स्कूलों और सामुदायिक भवनों को उड़ा दिया गया है। आदिवासी अगर पढ़-लिख और विकसित हो गए तो नक्सलियों की गुलामी कौन करेगा ?
3. ज्यादातर लोगों का मानना है कि नक्सलवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेती है। मित्रों, आप भ्रम में हैं। यदि इनका कोई विचार है तो वह कागजों में होगा। पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हर चुनाव के पहले ये लोग चुनावी वहिष्कार का नारा और कुछ छिटपुट घटनाओं को अंजाम देकर अपनी क़ीमत बढ़ाते हैं और फिर सबसे ज्यादा कीमत देने वाले किसी उम्मीदवारके पक्ष में फतवे ज़ारी करते है, चाहे वह कितना बड़ा शोषक और अनाचारी क्यों न हो। आंकड़े एकत्र कर के देख लीजिये कि कितने सामंतों और पूंजीपतियों के विरुद्ध नक्सलियों ने हिंसात्मक कारवाई की है। आपको निराशा हाथ लगेगी। इनकी नृशंस हिंसा के शिकार हमेशा से निहत्थे ग्रामीण, गरीब सिपाही तथा छोटे किसान-मज़दूर ही होते रहे है।
वक़्त आ गया है कि हमारी केंद्र और राज्यों की सरकारें नक्सलियों के प्रति अपना ढुलमुल रवैया छोड़ें और उन्हें आतंकी मान कर उनके ख़िलाफ़ एक निर्णायक जंग की शुरूआत करें। मैं नक्सलियों के हमदर्द देश के बुद्धिजीवी मित्रों से भी अनुरोध करूंगा कि वे स्वप्नलोक से बाहर निकलें और आदिवासियों का शोषण करने वाली व्यवस्था तथा उनका इस्तेमाल करने वाली बर्बर अव्यवस्था दोनों का एक साथ प्रतिकार करें !
लेखक - ध्रुव गुप्ता