यह दुनिया एक ऐसा ‘मायावी-मकड़-जाल’ है जहां इंसान ‘रिश्तो-की-डोर’ मे इस तरह बंध जाता है कि अपना ‘सुधबुद’ तक खो बैठता है। माँ-बाप, चाचा, ताऊ, बहन-भाई ना जाने कितने ‘जज्बाती-रिश्ते’ है इस “भौतिक-संसार” मे, फिर भी वैचारिक-दृष्टि से देखा जाए तो सभी ‘रिश्तो-के-रंगो’ का समावेशी रूप “मित्रता” ही है। जिंदगी की ‘व्यस्तता’ और भाग-दौड़ मे ‘मित्र’ और ‘मित्रता’ का महत्व और ‘अधिक’ बढ़ जाता है। किसी भी रिश्ते की ‘मधुरता’ एवं ‘मजबूती’ के लिए (चाहे वो ‘खूनी’ हो या ‘इंसानी’) उसमे ‘मित्रता का भाव’ होना अत्यंत आवश्यक है। ‘समावेशी-रूप’ से मेरा आशय यह है कि हर रिश्ते मे कही-न-कही ‘एक दोस्त’ छुपा होता है । आज के ‘आधुनिक-प्रपेक्ष’ मे देखेंगे तो पाएंगे एक पिता अपने पुत्र/पुत्री की ओर ज़िम्मेदारी अर्थात ‘पित्रत्व धर्म’ को ‘मित्रतारूपी-स्नेह’ के ‘हथियार’ के साथ बखूबी निभाता है।
वास्तव मे मित्रता एक ऐसा “राम-बाण” है जो किसी भी प्रकार की ‘खटास’ और “संदेह” को दूर करने कि ‘अद्भुत-शक्ति’ रखता है। हर युग मे मित्रता के ‘आदर्श-उदाहरण’ मिलते है। ‘कृष्ण-सुदामा’, ‘कर्ण-दुर्योधन’, ‘राम-सुघ्रीव’, ‘कृष्ण-अर्जुन’, ‘राम-हनुमान’, ऐसे कई मिशाले है जिनका ‘स्वर्णिम-इतिहास’ आज के कलयुगी दौर मे हम ‘इन्सानो’ को मित्रता और मित्र दोनों कि महत्ता का पाठ पढ़ाता हैं। दिलचस्प बात यह है कि उपरोक्त हर मिशाल का अपना ही एक अलग ‘रंग’ है। चलिये इनके ‘सबरंगों’ पर प्रकाश डाल और इनसे जुड़े विभिन्न रोचक पहलुओ का अवलोकन करें।
सबसे प्रचलित मित्रता की मिशाल ‘कृष्ण-सुदामा’ कि दी जाती है। यह मित्रता सच कहूँ तो ‘विचित्र’ होने के साथ –साथ ‘अद्वितीयता’ का पर्यायवाची भी दर्शाती है। एक तरफ द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण थे जिनके ‘वैभव’ और ‘तेज’ के समक्ष कोई नहीं था वही दूसरी तरफ एक असहाय निर्धन ब्राह्मण जो बड़ी कठिनाई से अपने परिवार का निर्वाह कर रहा था। कहाँ एक ‘तेजस्वी राजा’ .... कहाँ एक ‘गरीब ब्राह्मण’….. कोई मेलजोल नहीं था फिर भी “ऊंच-नीच” की सारी दीवारे ढहा कर दोनों ने “मित्रता-प्रेम’ की ‘बेजोड़ मिशाल’ कायम की। इस मित्रता मे ‘लालच का भाव’ बिलकुल नहीं था इसमे तनिक भी ‘संशय’ नहीं है। सुदामा को ज्ञात था उनका मित्र कृष्ण एक वैभवशाली राजा है फिर भी उन्होने ‘मित्रता’ की आड़ मे किसी भी प्रकार की सहायता नहीं मांगी। पत्नी के दबाव मे कृष्ण के महल मे गए सुदामा का ‘अतिथि-सत्कार’ ऐसा हुआ कि ‘रुक्मणी’ भी आश्चर्यचकित रह गयी। कृष्ण ने भी अपने मित्र को निराश नहीं किया और सुदामा को “वैभवता” का वरदान दे उनकी निर्धनता को दूर कर दिया। प्रेम का ऐसा रंग केवल 'मित्रता' का ही हो सकता है जो पूर्ण रूप से 'समावेशी' है।
महाभारत मे 'दुर्योधन-कर्ण' की जोड़ी अमूल्य तो थी पर शायद उनकी मित्रता मे "एकतरफा स्वार्थ का भाव" था। कर्ण एक योद्धा थे उनके पराकर्म एवं शौर्य का दुर्योधन को बोध था उन्हे महाभारत की लड़ाई मे 'कर्ण' का महत्व मालूम था। कर्ण जैसे पराक्रमी से अपना हित कैसे साधना है उन्हे मालूम था। दूसरी तरफ कर्ण अपने मित्र दुर्योधन को बहुत मानते थे। यह भी मित्रता का अपना ही 'समावेशी रंग' है।
रामायण मे राम-सुघ्रीव का मिलाप 'दोतरफा स्वार्थ का भाव" प्रकट करता है। एक तरफ जहां राम को रावण को हराने के लिए सुघ्रीव कि 'भारी-सेना' की आवश्यकता थी वही दूसरी तरफ सुघ्रीव को मालूम था बालि का वध कर अगर कोई उन्हे उनका खोया हुआ राजपाठ लोटा सकता था तो वो 'श्रीराम' ही थे। यह भी सच है बाली के वध के बाद सुघ्रीव राम कि मित्रता और मदद को भुला अपने साम्राज्य मे इस तरह मस्त हो गए कि उन्हे राम को दिया वचन भी याद नहीं रहा। यह बी मित्रता का एक 'अजब-ग़ज़ब'रंग है।
'कृष्ण-अर्जुन' और 'राम-हनुमान' की जोड़ी मे बहुत समानता है। फर्क सिर्फ इतना है एक तरफ राम-भक्त हनुमान ने श्रीराम को रावण के साथ युद्ध जीतने मे सहायता की वही दूसरी तरफ चक्रधारी श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बन पांडवो की महाभारत कि जीत मे अहम भूमिका निभाई थी। हनुमान की 'राम-भक्ति' और अर्जुन के 'कृष्ण-प्रेम' से हम सभी परिचित है। अतः कह सकते है इस मित्रता मे 'भक्ति-एवं-आदर' का भाव है।
निस्कर्ष मैं यही कहना चाहूँगा 'सच्चा-मित्र' वह है जो आपसे 'नि:स्वार्थ' मित्रता रखे। उम्मीद करे तो इतनी कि आप उनके संकट के समय मे उनके साथ खड़े रहेंगे। उन्हे आपके 'धन-दौलत","वैभव" से लगाव ना हो बल्कि आपके 'आत्मीय-व्यक्तित्व' से जुड़ाव हो। आपके दु:खो को बाटना जिसे आए नाकि उस पर वो 'हसी उड़ाए'। आपकी खुशियो का भागीदार बने वो, मन ही मन ‘वो’ न जले वो। यधपि ऐसा मित्र आज के दौर मे मिलना मुश्किल है, पर जनाब नामुमकिन बिलकुल नहीं। बस आपकी सोच सकरात्मक होनी चाहिए, विस्वास मानिए आपके 'दुश्मन' भी आपके 'मित्र' बन जाएंगे।
'मित्रता' युगो युगो से 'शत्रुता' पर भारी पड़ी है। तो मान लीजिये अगर आपको जिंदगी के सारे रंग भरपूर जीने है तो मित्र बनाए 'शत्रु' नहीं।
---- रोहित श्रीवास्तव की कलम से ----