घड़ी ने 11:30 बजा दिए थे। पीहू अब जाकर सोई तो दिव्या और निहारिका ने चैन की सांस ली।दोनों पीहू के अगल-बगल लेटी थीं। दिव्या ने छत की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए निहारिका से पूछा - "गीता ने जो आज बताया उस पर तुम क्या सोचती हो?"निहारिका ने बेपरवाही से मुस्कुराते हुए उसी तरह छत की ओर देखते हुए उत्तर दिया "कुछ नहीं" और दोनों ने करवट बदल कर एक दूसरे की तरफ मुंह किया और मुस्कुराते हुए दिव्या ने कहा- "मैं भी"। अक्सर दोनों के बीच ऐसा ही होता था दोनों बहुत सारी बातें बिना भूमिकाओं के समझ जाती थी। यूं तो कहने को वह केवल एक वर्किंग वूमेन हॉस्टल में रहने वाली रूम मेट थीं। परंतु उनका रिश्ता इससे कहीं ज्यादा था। मानसिक रूप से दोनों एक दूसरे की पूरक थीं। अधिकतर सामाजिक मुद्दों पर व्यक्तिगत भिन्नता लिए उनके विचार भी एक जैसे थे। कुछ ऐसा ही आज गायत्री के मुद्दे पर भी हुआ था। गायत्री पड़ोस वाले कमरे में रहती थी। उसकी उम्र करीब 35 के आसपास थी। उसका एक 17 साल का बेटा था। गायत्री एक मैश में ₹10000 महीने में खाना बनाती थी। उसका बेटा नाना नानी के पास रहता था। गायत्री से मिलने उसका पति अक्सर आता था। शायद कहीं बाहर काम करता था। छुट्टियों में वो भी अपने घर चली जाया करती थी। आज दोपहर में गीता किसी खुफिया जासूस की तरह आई और दिव्या निहारिका से बताया कि जिसे गायत्री उसका पति कहती है दरअसल वो उसका पति नहीं है उसका तो तलाक हो गया है। कल ही मुझे पता चला। दिव्या और निहारिका ने चेहरे पर एक शांत मुस्कान के साथ उसकी बात सुनी। रात्रि में खिड़की से बाहर चांद को निहारते हुए आज फिर उन दोनों का मन समाज के सौतेले व्यवहार के प्रति उधेड़ बुन कर रहा था। कि एक पुरुष को उसकी पत्नी के मर जाने या छोड़कर चले जाने के बाद मिली हुई सहानुभूति उसे दूसरा विवाह या स्वैच्छिक संबंध बनाने की अनुमति देती है, वही सहानुभूति अपने जवान लड़के के कारण दूसरी शादी जैसे बंधन में ना बंध पाने वाली, शराबी आदमी से मार खाकर थक चुकने वाली एक बेकसूर औरत को चरित्रहीन बना देती है।
- नीरजा