क्रिटिक्स जरूरी या बस खानापूर्ति

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भारत एक ऐसा देश है जहाँ साल भर में कई फिल्मे रिलीज़ होती है जो समाज के अलग अलग वर्ग के लिए होती है , कुछ बहुत अच्छा  बिज़नस करती है, कुछ अच्छा  बिज़नस  करती है  कुछ ठीक ठाक, तो कुछ उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाती | इस पुरे खेल का दारोमदार जनता पर होता है जो हर शुक्रवार नई उम्मीदों के साथ सिनेमा घरो में जाती है , और फिल्मो की तक़दीर लिखती है | क्रिटिक्स इस खेल  में अहम् भूमिका निभाते  है | क्रिटिक्स की राय निर्माता और जनता दोनों के लिए अहम् होती है , क्रिटिक्स फिल्मो को देख कर अपना पक्ष रखते है और चलने या न चलने का अनुमान लगाते है पर कुछ ऐसी फिल्मे भी है जिन्हें क्रिटिक्स ने नकार दिया पर उन्होंने उम्मीद से ऊपर बिज़नस किया | शोले , हम आपके है कौन , डिस्को डांसर , वांटेड , राउदी राठौर ,अतः जरुरी नहीं है की जिस सोच को सामने रख कर क्रिटिक्स फिल्मो का भविष्य तय करते हो क्या पता जनता उस  फिल्म को वैसे न देखे | साल दर साल लोगो की पसंद बदलती है  , राज कपूर ने  जब "सत्यम शिवम् सुन्दरम" बनाई थी तब क्रिटिक्स ने उन्हें आड़े हाथो लिया था पर लोगो ने फिल्म को काफी सराहा था |  संवेदनशील फिल्मो का एक दौर था और आज चालू मसाला फिल्मो का दौर है , जनता ने उस दौर को भी देखा है और वो इस दौर को भी पसंद कर रही है , नहीं बदला है तो सिर्फ क्रिटिक्स का फिल्मो के प्रति रवैया जो आम लोगो की सोच से परे है | क्रिटिक्स की राय एक ऐसी फिल्म की तलाश को दर्शाती है जो समाज के हर तबके को संतुष्ट करे | अगर हम ज्यादा पीछे न जाये तो फिल्म "गुजारिश" को क्रिटिक्स ने खूब सराहा , ऐश्वर्या के अभिनय और संजय लीला भंसाली के निर्देशन को काफी पसंद किया गया पर यह फिल्म टिकेट खिड़की पर सफल साबित नहीं हो पाई , ऐसी कई फिल्मे है जैसे शागिर्द, शंघाई , शैतान , दैट गर्ल इन येल्लो बूट  जिनको जनता ने नकार दिया | शायद जो फिल्मे हमें सच से रूबरू कराती है हम उन्हें उतना चाव से नहीं देखते जितना क्लैमेक्स में विलेन की उसी के अड्डे पे हीरो द्वारा धुनाई की जाने वाली फिल्मो को , किसी  ने ठीक कहा है की समय  बदलता नहीं सिर्फ बीतता है तभी तो वह समय बीत गया जब सिनेमाघरों से लोग रोते हुए निकलते थे , जब  फिल्मे १०० करोड़ की कमी के लिए नहीं बल्कि तारीफों के लिए बनाई जाती थी |

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