एक अजीब सी बेबसी,
एक अनचाहा डर,
इन मासूम आँखो में,
हर पल, हर वक्त।
वासना से भरी मुझे टटोलती नज़रे,
हवस से भरी शिकारी मनोवृत्तियाँ,
फबत्तियाँ कसती ज़ुबानें,
कभी अपनो की, कभी परायो की।
कभी वो जिनपर बहुत विश्वास किया तुमने,
कभी वो जिनके पास होकर भी,
ना भाँपी उनकी मंशा तुमने,
हाँ माँ, हाँ, वो ही,
जो देवालयो में पूजते रहे मुझे,
और बाहर खेलते रहे जिस्म से मेरे।
और इस बार तो कुछ किया भी ना मैंने,
बस पाँच बसंत ही तो देखे थे मैंने,
ना देर रात किसी बस में सफर किया मैंने माँ,
ना कोई भड़कीले कपड़े पहने मैंने माँ,
ना बोले कोई लुभावने बोल मैंने माँ।
मैं तो बस एक कलीं थी,
ओस की चादर से ढकी,
बन फूल किसी आँगन को महकाती मैं,
बन हार किसी के जीवन को खूबसूरत बनाती मैं,
बन एक नदी खुशियों की बहती जाती मैं।
एक अनचाहा डर,
इन मासूम आँखो में,
हर पल, हर वक्त।
वासना से भरी मुझे टटोलती नज़रे,
हवस से भरी शिकारी मनोवृत्तियाँ,
फबत्तियाँ कसती ज़ुबानें,
कभी अपनो की, कभी परायो की।
कभी वो जिनपर बहुत विश्वास किया तुमने,
कभी वो जिनके पास होकर भी,
ना भाँपी उनकी मंशा तुमने,
हाँ माँ, हाँ, वो ही,
जो देवालयो में पूजते रहे मुझे,
और बाहर खेलते रहे जिस्म से मेरे।
और इस बार तो कुछ किया भी ना मैंने,
बस पाँच बसंत ही तो देखे थे मैंने,
ना देर रात किसी बस में सफर किया मैंने माँ,
ना कोई भड़कीले कपड़े पहने मैंने माँ,
ना बोले कोई लुभावने बोल मैंने माँ।
मैं तो बस एक कलीं थी,
ओस की चादर से ढकी,
बन फूल किसी आँगन को महकाती मैं,
बन हार किसी के जीवन को खूबसूरत बनाती मैं,
बन एक नदी खुशियों की बहती जाती मैं।
लेखक - अम्बर सक्सेना
