दंश

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स्त्री होने का दर्द
कसिटता है
कचोटता है मन के भीतर
अनगिनत तारों को
वो रो नहीं सकती
कुछ कह नहीं सकती
बाहर निकली तो
मर्यादा का डर ,
सबसे ज्यादा घर से मिले
संस्कारों का डर
तो कभी
आलोचना का डर ,
नियमों का डर ,
कायदों का डर
जो गिर देता हैं आत्मविश्वास
फिर भी हँसती है
वो छटपटाती है और
अपने ही सवालों से घिर जाती है
हर एक दायित्व बस
उसी से जोड़कर देखा जाता है
कहा जाता है
मर्यादा में रहो
समाज की  सुनो
प्रेम ना करो
किया तो मार दी जाओगी
बस आँख बंद कर
इस सो कोल्ड समाज की
मर्यादा का पालन करो
और ये न भूलो कि
तुम एक स्त्री हो
ये समाज के रखवाले
ठेकेदार बन
चूस लेंगे खून
जीने नहीं देंगे
और कहेंगे
सहना पड़ेगा ये दंश
तुम्हें उम्रभर
क्यूंकि तुम एक स्त्री हो ।

- दीप्ति शर्मा
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