सत्ता का संग्राम।
वादों की बोछार।
बोझिल आशा के साथ
'मिला एक भुखा इंसान'
एक पहचान का बोझा था उसके साथ।
बेरंग सी उस जिन्दगी को होने वाला था
नीली स्याही का एहसास।
उम्मीद की उस कतार में
'मिला एक भुखा इंसान'
बुद्धिजीवियों की पअरा शासन पर अपनी बहस थी।
भष्टाचार जैसे शब्दों के परयोग की जैसे कोई कमी ना थी।
उन खामियों में उलझा
'मिला एक भुखा इंसान'
व्यस्त महिलाओं का भी तंता लगा था।
खचॉ बड़ गया ना
मँहगाई का राग आलापे समय कट रहा था।
उन खचॉ में एक रोटी का हिसाब लगाता
'मिला एक भुखा इंसान'
खादी से सामाना कुछ दिनों से बड़ गया था।
सपने वादे लिये हर कोई दृार पर खड़ा था।
कुछ अपनी भी अधूरी चाह लिये
'मिला एक भुखा इंसान'
उम्मीद,इंतजार का अनौखा मिलन था।
लोकतंत्र की उस पगडंडी पर आशा का दिपक लिए वो भी चला था।
अन्धकार में उजाले की ख्वाहिश लिये
'मिला एक भुखा इंसान'
लोकतंत्र की उस पगडंडी
पर
भीड़ बहुत थी
किरदार बहुत थे।
हर किसी में था
एक भुखा इंसान।
फकॅ सिफॅ भुख का था
'मिला एक भुखा इंसान'-2
कवि- संदीप रावत
कवि- संदीप रावत