सदियों से हमें यह सिखाया गया है कि
पत्थर छेनी और हथौड़ी से तराशे जाते हैं
और हम देते चले आये हैं
पाषाण खण्डों को विभिन्न आकार
छेनी की धार और हथौड़ी की मार को
पत्थर पहचानते हैं और
जो तराशे जाने को नियति मानते हैं
पूज्यनीय या शोभनीय हो जाते हैं
विशाल पर्वतों और दुर्गम पठारों में
आज भी हैं विलक्षण शिलाखण्ड
जो तराशे नहीं गए
इसलिए पूजे या सजाये भी नहीं गए
पहाड़ों के स्वाभाविक सौन्दर्य का हिस्सा बनकर
वे चेतना के अंकुरण की बाट जोह रहे हैं
जब भी कभी जीवन संगीत
इन पहाड़ों पर बजेगा
सबसे पहले उठ खड़े होंगे
ये अनगढ़ पत्थर
आकार से मुक्त और चेतन
कवि - सुशील कुमार