“मेरी स्वपन परी”

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जब जब मेरा “चंचलरूपी” मन भवरें की भांति ...... सपनों की “पुष्प-नागरी” मे मँडराता
खुद को कभी इधर...... कभी उधर..... “बदनाम” तन्हा गलियो मे बिलकुल अकेला पाता

मन-मंदिर मे बसी “अनदेखी-अनजानी” वो सपनों के संसार की “स्वपन-सुंदरी”
जिसमे “सौंदर्यता” और “कोमार्यता” “कूट-कूट” के भरी.....

सच कहता हूँ मे.... सच कहता हूँ मे..... वो ही है मेरी.... वो ही है मेरी..... “स्वपन-परी”

चाँद की “चमक”....... सूरज की “दमक”..... टिमटिमाते तारों की रौनक से जिसका “आकाशरूपी” मनमोहक रूप लिखताआकर्षण” की नयी परिभाषा।
थोड़ी सी अलबेली सी...... लगती एक पहेली सी..... मेरी “स्वपन-परी”... मेरी जिज्ञासा

खुली जब आँख मेरी...... हो गया वास्तविकता से “वास्ता”
झट से पलट गयी बाजी ऐसे..... जैसे शतरंज का “पासा”

फिर से हुआ मेरा “निराशा” से सामना....... करता हु आजकल ईश्वर से ये ही “कामना”
हो जाए बस एक बार “मेरी स्वपन परी” के साथ “भौतिक-संसार” मे “आमना-सामना”   

ना जाने कब होंगे मेरे सपने साकार.... मिलेगा मेरी “उमंगभरी चाहतो” को स्वपनरुपि आकार
आएगी मेरे जीवन मे भी खुशियो की बहार
इंतज़ार है मेरी “स्वपन-परी” का आज भी
 कहता हु मे “बारंबार”.......... कहता हु मे “बारंबार

ना जाने ऐसा क्यू लगता है हरदम ... मिलेगी मेरी स्वपन-परी वही......
जो कहलाता है “विस्मयकारी” स्वपन-संसार

इंतज़ार है मेरी “स्वपन-परी” का आज भी
 कहता हु मे “बारंबार”.......... कहता हु मे “बारंबार

------ रोहित श्रीवस्तव -------

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