यूपी के उप-चुनाव बिलकुल सेमी-फ़ाइनल की तरह थे। असल मुकाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच था। रुझानो से तो यही प्रतीत होता है कि सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी ने बीजेपी को पीछे छोड़ते हुए यह बाजी मार ली है। भारतीय जनता पार्टी जिसने लोकसभा चुनावो मे यूपी मे शानदार प्रदर्शन किया था उसके लिए यह नतीजे आँख खोलने वाले है।
कब तक बीजेपी 'मोदी-लहर' की बैसाखी के सहारे चलती रहेगी?
लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी उपचुनावों मे लगातार मुह की खा रही है चाहे वो बिहार हो या उत्तराखंड या फिर कर्नाटक , पार्टी ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया है।
अगर बीजेपी की हार तथा एसपी की जीत का विश्लेषण किया जाए तो यह बातें निकाल कर आती है:-
* लव-जिहाद का मुद्दा बीजेपी के लिए घाटे का सौदा साबित हुआ।
* योगी आदित्यनाथ की अति-आक्रामकता को जनता ने नकारा।
* 'मोदी-लहर' पर पूर्ण रूप से निर्भरता
* नरेंद्र मोदी नेत्रत्व वाली केंद्र सरकार का जनता की 'अच्छे दिनो की उमीदों' पर पूरी तरह से खरा नहीं उतरना।
* बीजेपी और उनके प्रवक्ताओ का अति-विश्वास। मुझे लगता है लोकसभा चुनावो के बाद बीजेपी के प्रवक्ताओ मे आक्रामकता बढ़ गयी है उन्हे थोड़ा 'नम्र-विनर्म' रहने की आवश्यकता है।
समाजवादी पार्टी और बीजेपी का दोहरा मापदंड देखिये।
रुझानो के बाद एसपी के प्रवक्ता और कानूनी सिपह-सालार गौरव भाटिया ने बयान दिया है कि यह जीत यूपी सरकार के मुख्यमंत्री की 'धर्मनिरपेक्षी' और 'विकास' की नीतियो की है। मेरी समझ से परे है वह किन नीतियो कि बात कर रहे है शायद यूपी मे चरमराई हुई शासन-व्यवस्था के बारे मे वह भूल गए है जहां 'गुनाह-ए-जुर्म' अपने ही एक शिखर पर है।
दूसरी तरफ मोदी लहर के प्रश्न पर बीजेपी के प्रवक्ता संबित पत्रा ने जवाब मे कहा इस चुनाव को मोदी जी से जोड़ कर नहीं देखना चाहिए। संबित जी ठीक फरमाया सहमत हूँ पर अभी 2 दिन पहले आए डूसू छात्रसंघ चुनावो मे जीत पर बीजेपी के ही प्रवक्ता ने कहा था 'यह जीत मोदी-लहर की ही है' । उधर काँग्रेस स्वयं की जीत से ज्यादा अति प्रसन्न बीजेपी कि हार और एसपी कि जीत से लगती है। दिलचस्प बात यह है कि इन चुनावो मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और काँग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी पार्टियों के लिए प्रछर नहीं था।
सच मैं भारतीय राजनीति अवसरवादिता से पूर्णत: ग्रस्त है। चाहे वो बिहार कि राजनीति मे 'लालू-नितीश' का 'अनैतिक' गठबंधन हो या फिर बीएसपी का संदेहात्मक तरीके से यूपी उपचुनावों मे भाग न लेना।
देखते रहिए यह है 'भारतीय-राजनीति-सर्कस' और हम (आम आदमी) है 'मूक-दर्शक'
लेखक : रोहित श्रीवास्तव
(आलेख मे प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार है )