महिला जोकि किसी जीवन की जननी होती है, जिससे मानव समाज की उत्पत्ति हुई और जिससे हमे ममता, दया, छमा, प्यार आदि का ज्ञान हुआ , जिसके बिना इस संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती, वो जो किसी नवजात शिशु को अपने स्तनों से लगाकर अपना असीम प्रेम देने का प्रयास करती है, उसे आखिर हमने और हमारे समाज ने क्या दिया है - लाचारी, बेबसी, गुलामी और एक निचला दर्ज़ा जो कि निश्चित ही हमारी विकृत और संकीर्ण विचारधारा का प्रतिक है ।
एक समय था जब महिलाओं को घरों की चार दीवारों तक सीमित रखना इज्ज़त और परम्परा का दूसरा नाम था, पर धीरे-धीरे समाज की सोंच में बदलाव आया और हमने महिलाओं को उनका हक़ दिलाने की लड़ाई की शुरुवात की और साथ ही उनके शशक्तिकरण पर भी काफी बल दिया ।
मगर हम इस बात को पूर्णतया नकार नहीं सकते की आज भी हमारे देश में महिलाओं की उस लायक स्तिथि नहीं है जिस लायक कभी गाँधी जी ने सोंची थी, और न हीं महिलाओं की स्तिथि ऐसी है जो उन्हें समाज में सम्पूर्ण स्वतंत्रता का एहसास करा पायें । बेशक महिलाओं के शशक्तिकरण के लिए लगातार प्रयास किये जा रहे हैं पर वो किसी भी प्रकार से उन्हें समानता का एहसास कराने में सक्षम नहीं हुए है, अभी भी इस दिशा में बहुत से कार्यों का होना बाकी है और खासकर देश के पिछड़े इलाकों में जहां आज भी लोग महिलाओं को घर की साज़-सज्जा की एक वस्तु मात्र मानते हैं , हमे आगे आकार इस लड़ाई को एक आंदोलन का रूप देना होगा ताकि हमारे राष्ट्र की महिलाये स्वतंत्रता और समानता का एहसास कर सकें |